वह जो उचाईयों पर उचाईयां चढ़ता रहा
ख़ुद को बेहतरीन समझने का गम उसे खा गया
बदलते वक्त ने असलियत का आईना दिखाया तो
एक अदना सा इंसान बनकर रह गया
वह ख़ुद को मुकम्मल से कम नही समझता था
सच के करीब होकर अधूरा सिमटकर रह गया
अपने होने को न होने से अलगाता हुआ
कमजोर इंसान बनकर रह गया
अब तो ऐसे जैसे किसी तपते पहाड़ पर यकायक
घने कुहरे में हल्की बूंदें बरस रही
हर तमन्ना हर इच्छा बुलंदियों को छूती हुई
कभी आग थी अब पानी पानी हो रही
Wednesday, May 27, 2009
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