Saturday, February 6, 2010

रोज़ दिन एक एक कर मरता चला गया

हर राज़ सीने में दफ़न करता चला गया।

बिखरी हुई खुशियों की चाहत में

गमों का सिलसिला लम्बा बनता चला गया।

मिटा न सकी मुझको मेरी खुद की आफतें

में अपनी बरबादियों पर हंसता चला गया।

बदसूरतों को आईना अच्छा नहीं लगता

में आईने में खुदको देखता चला गया।

कुछ अलग लुत्फ़ होता है गुमनामी का भी

में काठ का एक पुतला बनता चला गया।

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