Friday, June 11, 2010

निशाँ नहीं मिलते

दश्त-ओ-सहरा में गुलिश्तां नहीं मिलते
रहने को कहीं भी मकां नहीं मिलते ।
चलती हुई लू के थपेड़े तो मिलते हैं
मंजिल तक पहुंचने के निशाँ नहीं मिलते।
दूर तक बस्ती कोई आबादी नहीं मिलती
रात में सिर पर आसमां नहीं मिलते ।
गुज़र जाती है शब् उदास करके मुझे
तन्हाई में एहसासे-जियां नहीं मिलते ।
रह रह के सिमटते हैं घेरे मेरी बाँहों के
फरेब जिंदगी में कहाँ नहीं मिलते ।
अपने वजूद में सिमटा रह जाता हूँ मैं
हम जहां हैं तुम कभी वहाँ नहीं मिलते ।

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