Sunday, September 5, 2010

आदमी कब क्या सोच ले पता नहीं.

आदमी कब क्या सोच ले पता नहीं
करता करता क्या कर बैठे पता नहीं।
वक़्त आदमी के मिजाज सा होता है
बनते बनते कब बिगड़ बैठे पता नहीं।
शहर तो कोई भी नहीं बदला उसने
हैं घर क्यों इतने बदले पता नहीं।
रहो उस के जो दिल को लगे अच्छा
वह क्यों बदलता है रिश्ते पता नहीं।
शहर रोशन करने का वादा था मगर
कहाँ उड़ गये गर्द बन के पता नहीं।
राजे-मुहब्बत दफ़न था दिल में जब
क्यों रोये गले लग के पता नहीं।
हमें तो खा गया दिल का जूनून
हुए हाथ क्यों उनके कलम पता नहीं।

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