Tuesday, February 22, 2011

किश्ती में बैठ जाता पार उतर जाता
वक़्त मेरा भी आसानी से गुज़र जाता।
तहरीरों के नश्तर अगर न चुभे होते
शहर में तेरे अपना मैं नाम कर जाता।
बर्फीली वादी धुंध ये पहाडी तन्हाई
सहारा इनका न होता किधर जाता।
गुमनाम अंधरे में खौफ आंधी का
मैं गुनगुनाता न होता तो डर जाता।
ये दर्द उस पर आंसुओं का सैलाब
रुकता न गर दामने-रूह भर जाता।
थकान ये खराशें यह नींद का बोझ
सफ़र में न होता तो अपने घर जाता।
तस्सली हौसला यदि खुद को न देता
क़सम खुदा की मैं जल्दी मर
जाता

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