Friday, June 28, 2013

उम्र तीस की थी पचास में ढल  गई
बच्चों को बड़ा करने में ही निकल गई !
वक्त का तो फिर पता ही नहीं चला
पाँव में जैसे एक चकरी सी चल गई !
जिम्मेदारियों का बोझ  उठाते उठाते
मुंह से कभी आह तक भी निकल गई !
कभी ख़ुशी कभी गम और कभी फिक्र
इन के सहारे से ही जिंदगी बहल गई !
बच्चों के सपनो को पूरा करते करते
जवानी ही सारी जैसे कहीं फिसल गई !
जिंदा दिली से सफ़र हम तय करते रहे
आज लगा जैसे कायनात ही मिल गई !
आज सपने उनके पूरे हो गये जब सब
जिंदगी जितनी बची हुई थी मचल गई !

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