Saturday, August 2, 2014

ख़ूबसूरती कभी बेनज़र नहीं होती
मुहब्बत की कोई डगर नहीं होती।
बहुत शौक़ था महकने का उसको
फूल की ही उम्र  मगर नहीं  होती।
मुहब्बत तो पलकर बड़ी हो जाती
छत नीची घर की अगर नहीं होती।
ज़ख्म भी भर जाते  सारे कभी के
निशानी तुम्हारी  अगर नहीं होती।
 उम्र भर का हिसाब न मांग मुझसे
साथ तेरे अब तो गुज़र नहीं होती।
फ़िक़्रे दुनिया ने तोड़ दिया मुझको
अब मुझे मेरी ही ख़बर नहीं होती।
 ऐसे भी कुछ लोग हैं इस ज़हान में
जाम बग़ैर जिनकी सहर नहीं होती।


  

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