Friday, May 15, 2015

ज़ाम सामने आते  ही वो सूफ़ी हो गए
होंठ  मगर उनके  तश्नालबी  हो गए।
तलब का भी कोई  पैमाना  नहीं होता
हक़ीक़त खुलते   ही अज़नबी  हो गए।
शिद्दत से जल रहे थे चराग़ जो कभी
हवा का रुख़ बदलते ही ज़ख़्मी हो गए।
इतनी पी ली फिर हिचकियां  लेने लगे
कुछ सवाल  मगर अब  ज़रूरी हो गए।
क़रार था ख़ुमार था न  जाने वो क्या था
पीकर के मगर वो एक तसल्ली हो गए।
अपने जिस हुनर पर नाज़ उन्हें बहुत था
अपने उसी हुनर से अब वो दुखी हो गए।
एक सिरा पकड़ा तभी  दूसरा उधड़ गया
दीवानगी  की  वो मिसाल ऐसी  हो गए।
उस शहर की हवा फिर  महक नही सकी
जिस शहर में रहने को वो थे राज़ी हो गए।

 

No comments:

Post a Comment