Tuesday, May 19, 2015

किसने  कहा कि  इश्क़ खाना ख़राब है 
यह ज़िंदगी की  खुबसूरत  क़िताब है। 
ज़िंदा इसी के दम पर यह  क़ायनात है 
खुशबु को इसकी हर दिल ही  बेताब है।
रात  चांदनी में  नहाया  हुआ था चाँद 
आख़िर को पूरा हो  गया मेरा ख्वाब है। 
 आँखों की मस्ती का भी एहसास है मुझे 
उनमें भी मेरे इश्क़ का ही तो सैलाब है। 
ये अंग अंग  इश्क़िया ग़ज़ल  के शेर हैं 
सर से पांव तक वो ग़ज़ल की क़िताब है। 
अपनी तन्हाई  में भी महका रहता हूं मैं 
सांसों में उसके इश्क़ का घुलता गुलाब है। 
पैमाना मेरे सब्र का तो छलका ही रहता है 
ये इश्क़ भी न पूछो क्या ज़ालिम शराब है। 

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