Saturday, June 13, 2015

बचपन में हम अमीर थे ग़रीब हो गए 
चेहरे बदल कर अजीबोग़रीब हो गए। 
ज़हाज़ उड़ाते थे काग़ज़ों के शौक़ से 
हौसले वो सारे ही  बेतरतीब हो गए। 
वो मासूमियत भी जाने कहां खो गई 
उदास शाम सहर  के  क़रीब हो गए। 
मनमानी करते थे नादानी करते थे 
क़िस्से वो सब अब तहज़ीब हो गए। 
तितलियों के खेल पे पाबंदी लग गई 
झूठी कहानियों के ही नसीब हो गए।
ज़ेहन में हैं गुल्लक़ की यादों के साये 
वो मुसाफ़िर अब ज़हेनसीब हो  गए। 
उम्र के संग हवाओं के तेवर बदल गए
ज़िंदगी के अब बहुत ही क़रीब हो गए   

No comments:

Post a Comment