Monday, June 22, 2015

कहीं बारिश तो कहीं गर्दो ग़ुबार था 
कहीं फ़िज़ा में  भी छाया ख़ुमार था।  

अभी खिला था मुरझा भी गया वो 
फूल ख़ुद पर ही बहुत शर्मसार था। 

वो आइना  ही  टूट गया  आज  तो    
बदौलत जिसकी मुझमें निखार था। 

जिससे पूछो वो तो  कहता है  यही 
बेवफ़ा न था वो तलाशे रोज़गार था। 

एक ही घूँट में  खुल गए राज़ सारे 
ख़त्म हुआ जिस पे जो ऐतबार था। 

शुक्रिया कैसे अदा करूं चाँद तेरा मैं 
एक तू ही तो  मेरे गम में शुमार था। 

No comments:

Post a Comment