Friday, October 30, 2015

गीत लिखूं ग़ज़ल लिखूं कविता लिखूं 
तू  बता तेरी क़िस अदा पे क्या लिखूं। 

तेरी वफ़ाओं का मैं  क़ायल हूँ इतना 
जी नहीं चाहता तुझे मैं बेवफ़ा लिखूं । 

वह सितमगर है तू मेरे पर कुतर दिए 
कैसे बता तुझे फिर  मैं बावफ़ा लिखूं। 

आईने ने भी पूछा यह साया किसका है
एक रहज़न को  कैसे मैं रहनुमा लिखूं। 

मैं क्या तमाम शहर पूछेगा कुछ न कुछ 
कैसे मैं तेरे नाम दिल की दुनिया लिखूं। 

अगर मैं  रोना चाहूं  खुल के रो न सकूँ 
ज़ख्मे दिल की बता मैं क्या खता लिखूं। 

चिराग़े शाम ने अँधेरा तो मिटा ही दिया
मगर दिल किसका जला बता क्या लिखूं। 

जब पूरा ज़िक्र मिसरा ऐ ऊला में हो चुका 
अपने चौदहवीं का चाँद पे बता क्या लिखूं।  

   मिसरा  ऐ ऊला - पहली पंक्ति  




Wednesday, October 28, 2015

आप देखते रहिए  हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता 
दिल भी अब  उस तरह नहीं  धड़कता। 

मालूम नहीं फूल कहाँ  छोड़ आये हम 
खुशबुओं का कोई सुराग़ नहीं मिलता। 

ज़िंदगी हमें बहुत ही छोटी सी मिलती है 
वादा उसका मौत से अच्छा नहीं लगता। 

वह अंदर से तो बड़ा ही खोखला निकला 
बिना तेल कभी कोई  दिया नहीं जलता। 

ग़ैर को खत लिखते रहे वो फ़र्ज़ी नाम से 
और कहते रहे  कोई ज़वाब नहीं मिलता। 

न जाने आज की रात भी किस तरह कटे 
मुफ़लिसी में चाँद भी अच्छा नहीं लगता। 



Saturday, October 17, 2015

एक दिल हसरतें हज़ार क्या करते 
देते नहीं खुद को क़रार क्या करते। 

एक एक पल कटा हज़ार लम्हों में 
यह मंहगी ज़िंदगी यार क्या करते। 

आंच देने लगी वह नरम बाहें हमें  
हम जलते हुए  अंगार क्या करते।

आंसुओं से ही धोने लगे चेहरा अब    
इतने हो गए थे बीमार क्या करते।  

लुट गए  मुहब्बत के नाम पर हम 
ऐसा  भी विसाले  यार क्या करते। 

एक दिल ही न संभल सका हम से
हम चाँद सा रु ए निगार क्या करते। 

तज़ुर्बा नहीं था ज़िंदगी का हम को 
हम अज़नबी का ऐतबार क्या करते।  

चेहरा वही रंगत वही आदतें भी वही 
हवा ही ताज़ा ख़ुशगवार क्या करते।

टेढ़ी हो गई  थी उसे तोड़ना ही पड़ा  
गिरने को थी वह दिवार क्या करते।  
विसाले यार -यार से मिलन 
रु ए निगार -यार का चेहरा 

Wednesday, October 14, 2015

परतें प्याज़ की छिलती चली गई 
आँखों में  पानी भरती  चली गई। 

दो घूँट शराब गले से क्या उतरी 
हक़ीक़त बयान करती चली गई। 

मुहब्बतों का बोझ ढ़ोते ढ़ोते ही  
घिस गई रिदा फटती चली गई। 

हसरत साथ रहने की उम्र भर वो  
लकीरें हाथ की मिटती चली गई। 

कब तक दिल भटकता दर ब दर 
क़यामत उस प गुज़रती चली गई।

ज़िंदगी छुट गई थी जिस गली में 
सदियाँ वहीँ  सिमटती  चली गई। 

दास्ताँ दुनिया को आज भी याद है 
नीम के पेड़ से लिपटती चली गई।

      रिदा - चादर   

Tuesday, October 13, 2015

वह दिल ही क्या जो बेताब नहीं होता 
हर अक़्से हक़ीक़त ख़्वाब  नहीं होता। 

अपनी  सफ़ाई में  मैं और क्या कहता 
कह दिया मुझसे अब हिसाब नहीं होता। 

दिल से अपने मिटा दी ख्वाहिशें सारी 
अब कोई भी सवालो जवाब नहीं होता। 

वो वलवले कहाँ वह जवानी किधर गई 
दिल हो या घर खाली शादाब नहीं होता।

कल तुम गए सर से क़यामत गुज़र गई 
शबे हिज़्र का ही  कोई हिसाब नहीं होता। 

अगर मैं ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी लेता 
क़सम ख़ुदा की मैं महरूमे आब न होता। 

मैक़दा तो खुल गया था रस्ते में घर के 
रोज़ मगर अब ज़श्ने- शराब नहीं होता। 

 शादाब-हरा भरा ,महरूमे आब -बिना चमक 

Monday, October 12, 2015

प्रिय दोस्तों ,
     आपके सहयोग एवं आशीर्वाद से गूगल सर्च पर 
ग़ज़लें बाइ सत्येन्द्र गुप्ता सर्च करंगे तो गूगल के 
पहले पेज पर मेरी ही वेबसाइट खुलेगी। 
इसके लिए मैं अपने सब followars का दिल से आभारी 
हूँ जिस के कारण मैं यहाँ तक पहुँच पाया हूँ। धन्यवाद। 
      सत्येन्द्र गुप्ता 

Wednesday, October 7, 2015

अपनी कहानी में ज़गह दे दो 
जीने की मुझको वज़ह दे दो। 

ज़िंदगी हर  पल  दरक़ रही है 
सुहानी सी नसीमे सुबह दे दो। 

यही है दुनिया यही है ज़न्नत
इश्क़  इबादत की  तरह दे दो। 

नींद आ जाए मुझ को चैन से
सुनहरे  ख्वाबों  की  तह दे दो।

बहुत बेवफा है यह ज़िंदगी भी 
इसको वफ़ाओं की वज़ह दे दो।

मेरे प्यादे  का घर  बंद हो गया  
मुझे खेलने को अपनी शह दे दो। 

इश्क़ ख़ुदा हो  जिस चौखट पर   
मुझे बंदगी करने की जगह दे दो। 


Tuesday, October 6, 2015

किसी शाम हमारा  इंतज़ार तो करते 
चाहतों में अपनी हमें शुमार तो करते।

चाँद ख़ुद ब ख़ुद उतर आता गोद में 
हसरत लिए उसका दीदार तो  करते। 

न करते प्यार अगर हमसे न करते 
हम पर मगर कुछ ऐतबार तो करते। 

रुख़ बदल देते सफर का हम भी तो 
कुछ दूर चलने का  क़रार तो करते।

दर्द जो  दिल की तहों में उतर गया 
उन हदों को ही  कभी पार तो करते। 

ख़ुश्बू ख़ुद ब खुद गले से लिपट जाती 
फूल को मेरे यार ज़रा प्यार तो करते। 

मुझको मेरी नज़र से देख लेते अगर 
सज़दा हुस्न का  बार बार तो  करते। 


  

Sunday, October 4, 2015

छत नीची हो तो सर उठाया नहीं जाता 
हकीकत को कभी झुठलाया नहीं जाता। 

अगर कहला देते हमें तो हम भी आ जाते  
बिना बुलाये हमसे कहीं जाया नहीं जाता। 

भेज दो यादों में तुम खुशबु संदली अपनी
मुहब्बत का बोझ तन्हा उठाया नहीं जाता। 

आँखों आँखों में बयां होते  हैं मज़मून जो 
खत में लिखकर के भिजवाया नहीं जाता। 

सारी मस्ती तुम्हारी आँखों की  ही तो है 
अब ज़ाम भी होठों से लगाया नहीं जाता। 

ठुकरा दिया दुनिया को खुद्दारी ने मेरी 
ख़्वाहिशों को  भी तो  रुलाया नहीं जाता। 

नए सवाल अजब अजब से न पूछ हमसे 
इतना भी किसी को आज़माया नहीं जाता। 

विसाले यार होगा या नहीं यह खबर नहीं 
तुमसे भी तो वायदा निभाया नहीं जाता। 

   विसाले यार - यार से मिलन 




Thursday, October 1, 2015

रख्ते सफर लेके चलना मुश्क़िल हो गया 
चलते चलते पाँव भी तो घायल हो गया। 

कच्ची उम्र में ही  सपने देख लिए इतने 
दिल ज़ल्दी ही इश्क़ के क़ाबिल हो गया। 

उठा दिया नक़ाबे हुस्न एकदम से उसने 
दिल देखते ही  उसका क़ायल  हो गया। 

इस तरह से दीवाना हुआ  दिल उस का 
पऊंचा थाम उनका लबे साहिल हो गया। 

बे दादे इश्क़ से नहीं डरता यह दिल अब 
दिल अब हर  तरह से क़ामिल हो गया। 
     रख्ते सफर - सफर का सामान 
     लबे साहिल -किनारे पर 
     बे दादे इश्क़ -इश्क़ की कठिनाइयां 
     क़ामिल -सफल ,पूर्ण