Sunday, December 27, 2015

उसे ज़िद थी दिल में ही मेरे उतर जाने की 
मुझे ज़िद थी अपनी सल्तनत बचाने की। 

उस के पास वज़ह थी मुझसे रूठ जाने की 
मेरे पास  भी वज़ह थी उस को मनाने की।

हसरतें तो दिल में  मेरे भी बहुत सारी थी
फ़ुर्सत नहीं थी लेकिन मुझे सर उठाने की। 

बस एक बार मैंने हंसकर देखा था उसको 
क़सम खाई थी उसने मेरे नाज़ उठाने की।

उसे मंज़ूर था  अपने ज़ख़्मियों से मिलना 
मुझको भी ज़िद थी अपना दर्द छिपाने की। 

दिल तू भूलने के फ़न में भी  तो माहिर है
कोई तो वज़ह  होगी उसके याद आने की। 

फिर तो बेख़ुदी में मैं ख़ुद को ही भूल गया
कुछ तो बात थी उन आँखों के पैमाने की। 

दिल का गुलाब मैंने जिसे चूम कर दिया 
दिल को  भी ज़िद थी  उसे आज़माने की। 
   


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